Alha Udal Mahoba Bundelkhand आल्हा उदल

वीर बुन्देल - महोबा और वीर आल्हा उदल 

alha
आल्हा 

बुन्देलखण्ड` क्षेत्र: महोबा उत्तर प्रदेश राज्य का एक जिला, महोबा अपनी बहादुरी के लिए जाना जाता है,  इतिहास में महोबा वीरता के लिए प्रसिद्ध है, महोबा के ही वीर आल्हा, ऊदल की कहानियां भारतीय इतिहास और उत्तर भारत में जनजन की जबान से सुनी जा सकती है, वीर महोबा की धरती वीरता के महत्व को परिभाषित करती हैं, यहाँ ऐसे कई स्थान हैं जो कि जीवंत गौरवपूर्ण बनाते हैं। महोबा खजुराहो, लवकुशनगर, कुलपहाड़, चरखारी, कालींजर, ओरछा और झांसी जैसे अन्य ऐतिहासिक स्थानों से निकटता के लिए जाना जाता है। महोबा का नाम त्रेता में कैकेई नगर, द्वापर में रतन पुर, पाटन पुर, और महोत्सव नगर से प्रचलित रहा, और बाद में महोबा के नाम से जाना जाने लगा है, यहां पर गोखार पहाड़ी पर पवित्र राम-कुंड और सीता-रसोई गुफा का अस्तित्व आज भी है, राम के दौरे के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है, जिन्होंने चित्रिकूट में 12 साल वनवास की अवधि पूरा किया था। 

महोबा पर शासक और जिला बनना: महोबा चन्देलों की राजधानी रही, उसके बाद कुछ समय पृथवीराज और फिर चंदेल राजा परमाल के अधीन आगया, 1196 में कुतुबद्दीन, 1434 जौनपुर के सुल्तान इब्राहिम शाह, मालवा के सुल्तान होसंग शाह, 16 वी शपताब्दी मुगल,  फिर राजा छत्रसाल ने अधिकार किया और महोबानगर का विकाश किया। 
आजादी के बाद यह जिला हमीर पुर के अंतर्गत आता था जिसे 11 फरवरी 1995 उत्तर प्रदेश के तत्कालिक मुख्य मंत्री मुलायम सिंह ने हमीर पुर से अलग कर के महोबा को जिला बनाया।

udal
ऊदल 

आल्हा ऊदल महोबा राज्य के वीर योद्धा: कालिंजर के राजा परमाल के सेनापति और महोबा के सामंत थे   जिनकी वीरता की कहानी आज भी सुनाई जाती हैं। आज भी इनकी वीरता को याद करके कई किसे और गीत गाए जाते हैं, जब भी इतिहास के विरो की बात आती हैं तो इन दोनों विरो का नाम बड़े आदर के साथ लिए जाते  है। इन दोनों का जन्म बुन्देलखण्ड के महोबा में हुआ था। 

''कहा जाता है की ''जा दिन जनम लिओ आल्हा ने, धरती धंसी अढ़ाई हाथ'' इस गीत के माध्यम से कीवियों ने इनकी वीरता की वर्णन करते है। इन दोनों भाइयों को आल्हा खण्ड में युधिष्ठिर और भीम के अवतार कहाँ  जाता है।

आल्हा काव्य: की रचनावों में यहां आल्हा उदल के लिए वीरता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वो अगर एक को मारते थे तो दो लोग मरते थे और तीसरा खौफ खाकर मर जाता था. आल्हा और उदल और उस समय के विरो की वीरता का इसी से अंदाज लगाया जा सकता है।
''बड़े लड़य्या महुबे वाले जिनकी मार सही न जाए.
एक के मारे दुई मरि जावैं तीसर खौफ खाय मरि जाए''
 वीर भूमि महोबा: और आल्हा एक दूसरे के बिना अधूरे माने जाएगें, महोबा की सुबह आल्हा से शुरू होती है और उन्हीं से खत्म। बुंदेल के कवियों ने आल्हा खण्ड के लिखे गीतों को सावन के महीने में बुंदेलखंड के हर गांव-गली में गीत गाते है।

'बुंदेलखंड की सुनो कहानी बुंदेलों की बानी में, 
 पानीदार यहां का घोडा, आग यहां के पानी में''
पन-पन, पन-पन तीर बोलत हैं, रन में दपक-दप बोले तलवार, 
जा दिन जनम लिओ आल्हा ने, धरती धंसी अढ़ाई हाथ''

यह कहानी उस समय की है, जब दिल्ली के राजसिंहासन पर दिल्ली के महाराज पृथ्वीराज चौहान विराजमान थे । पृथ्वीराज ने अपने आसपास के लगभग सभी राजाओ को अपने अधीन कर लिया था , लेकिन कन्नोज के राजा जयचंद ओर कलिंजर के राजा चंदेल परमालदेव ने पृथ्वीराज की अधीनता स्वीकार नही की। 

विवाह पुत्र रतन प्राप्ति : राजा परमालदेव का विवाह उरई के राजा की बेटी मलहना के साथ हुआ था । मलहना की दो छोटी बहन भी थी, देवल दे ओर तिलका, जिनका विवाह राजा परमालदेव ने अपने सेनापति दसराज ओर बच्छराज के साथ करवा दिया , देवल दे से दसराज का और तिलका से बच्छराज का। 
दसराज के आल्हा और उदल एवं बच्छराज के मलखान और सुलखान नामक पुत्र हुए। 
रानी मलहना की कोख से राजकुमार ब्रह्म का जन्म हुआ, ब्रह्मकुमार एक शूरवीर योद्धा थे राजा परमाल और रानी मल्हना का इकलौता पुत्र थे। 

महोबा पर मांडोगढ़ का आक्रमण: महोबा पर मांडोगढ़ के बघेल राजा ने आक्रमण कर दिया और इस लड़ाई में  मांडोगढ़ के राजा ने छल दसराज ओर बच्छराज को कैद कर लिया, और  बंदी बनाकर वो मांडोगढ़ ले गया ,लेकिन इसपर भी बघेल राजा की क्रूरता का अंत नही हुआ, उसने दोनो भाई दसराज ओर बच्छराज को मारकर उनका सिर काट बरगद के पेड़ पर टांग दिया।
''लोकगीत "टंगी खुपड़िया है बरगद पर , बरखा , हो या शीत को नाम
आधी बेला की रतिया में , रो रो ले, आल्हा को नाम'' 

जिस समय दसराज ओर  चाचा बच्छराज की मृत्यु हुई उस समय उदल माँ के गर्भ में थे और आल्हा छोटे थे,जब आल्हा उदल बड़े हुए तो उनकी वीरता से सभी दांग रह गए, आल्हा खण्ड के अनुसार 52 लड़ाई लड़ी थी और सभी में विजय प्राप्त किये थे,  एक दिन परमालदेव राजदरबार में बैठकर आल्हा उदल की वीरता की चर्चा अपने सभासदों से कर रहे थे, परमालदेव का साला माहिल और आल्हा उदल का मामा लगता था, माहिल राजा परमाल से और आल्हा उदल से चिढ़ता था, उसने उस दिन दरबार ब्यंग बाण छोड़ते हुए कहा की क्षमा करें महाराज, उदल इतना बड़ा वीर है और यह वास्तविक में वीर है तो मांडोगढ़ में उसके बाप का सिर आज तक टँगा ना होता । जब तक यह अपने पिता और चाचा के सिर मांडोगढ़ से लाकर उसका अंतिम संस्कार नही कर देता तब तक उनके पिता की आत्मा को मुक्ति नही मिलेगी। अगर उदल वीर है, तो इस कार्य को पूरा करके दिखाए।

आल्ह खंड में:  माहिल को अपने ही जीजा भांजे के खिलाफ सड़यंत्र रचने चुगलखोर पात्र की भूमिका अदा किया, इसने चंदेल सत्ता का विनाश हेतु क्रमशः चार युद्ध की रचना कर दी - कालिंजर की लड़ाई, सिरसा, बेतवा और बैरागढ़।

लोकगीत: जाको बैरी सुख से सोवे ताके जीवन को धिक्कार,
खटिया परिके जौ मरि जैहौ,बुढ़िहै सात साख को नाम
रन मा मरिके जौ मरि जैहौ,होइहै जुगन-जुगन लौं नाम
बाप का बैरी जो ना मारे, तोकर मांस गिद्ध ना खाएं ।
बाप के शत्रु का वध नही कर सकता, उसका मांस तो गिद्ध भी नही खाता।

ऊदल का बदला: ऊदल को पिता के इस तरह से हुई थी हत्या, की कहानी नहीं पता थी, जैसे उदल ने यह बात सुनी वो तुरंत माता के पहुंचे सारा किसा कहा, तब उदल की माँ बात सुन डर गई बेटे को पता चल गया है और उदल की माँ ने कहा,

टँगी खुपड़िया बाप चचा की
मांडोगढ़ बरगद की डार
आधी रतिया की बेला में
खोपड़ी कहे पुकार- पुकार
कहवा आल्हा, कहवा उदल, 
कहवा मलखे लडते लाल
बचके आना मांडोगढ़ में
राज बघेल जीवता काल
अरे बेटा अभी उम्र है बारी भोरी
खेलो खाओ दूध और भात
चढ़े जवानी, तब वाहन पर
तब जाके बघेल को मार
माँ की बात सुन कर उदल भुजा को फड़काते बोला,
भुजा उठाकर अब उदल ने
ओर माता से कहा सुनाये
मत घबरावे तू माता 
मांडोराज को मैं देखूं जाय
वंश सहित बघेल को मारूं
नाम मेरा उदलचन्द राय
मार के मांडो नरघा कर दूं
पक्का ताल देउँ बनवाए
खाल खींचकर भूंस भरवा दूँ
ऊपर दायं देउँ चलवाये
आग लगा दूँ में मांडो को
सबका देयु तेल कढ़वाय
बाप के बदले शीश मांडो का
महोबे में देयु लटकाए

ऊदल माँ को ढाढस बढ़ाते हुए बोला क्षत्रियों की वीरता का वर्णन करते हुए बलिदान का महिमामंडन किया गया है. आल्हा खण्ड में कहा गया है कि क्षत्रिय तो सिर्फ 18 साल जीता है, उसके आगे उसके जीवन को धिक्कार है. यानी क्षत्रिय को मरने से नहीं डरना चाहिए -
''बारह बरिस लै कूकर जीऐं ,औ तेरह लौ जिऐं सियार,
बरिस अठारह छत्री जिऐं ,आगे जीवन को धिक्कार''

आल्हा ने उदल से कहा, हमे सूझ बुझ से काम लेकर चढ़ाई करनी है, मांडोगढ़ एक मजबूत दुर्ग है, उसे भेद पाना असंभव है,
उक्त लोक गीतों से आल्हा ऊदल की वीरता का वर्णन किया गया कैसे अद्भुत वीर थे।

मलखान: एक वीर का वर्णन और याहाँ  करना उचित लग रहा मलखान जो बच्छराज का पुत्र था सुनाने में आता है की मलखान का शरीर लोहे के जैसे कठोर था, ओर युद्ध भूमि में वह अंगद की तरह पांव जमाकर लड़ता था ।
कहते है .....
"पांव पिछाड़ी टेक ना जाणे, जंघा टेक लड़े मलखान "

यानी युद्ध करते समय, वह पाँव को पीछे नही जाने देता था , ओर अपनी जांघों को टेक कर लड़ता था मलखान। 
आल्हा जिस हाथी पर सवारी करते थे उसका नाम पष्यावत था, उदल इसके घेड़े का नमा बेंदुल था।

''आल्हा ऊदल और मलखान को युद्ध के लिए मांडो कूंच करना'' 
मांडू के तीन कोस पहले ही सेना ने डेरा डाला | उसके बाद नगर का भेद लिया गया और आल्हा, उदल, मलखान मांडो पर धावा बोल दिया भीसड़ रक्त पात किया, मांडो की सेना आल्हा उदल मलखान का रौद्र रूप देखर सेना में भगदड़ मच गया युद्ध इतना घमासान  हुआ की लगा रणचंडी स्वयं रणभूमि उतर गई है, इस युद्ध के परिणाम स्वरुप, मांडो राजवंश का सम्पूर्णतः विनाश हो गया, जिस राजा जम्बे ने इनके पिता को कोल्हू में पिरवाया था, उसकी भी वही दुर्गति करते हुए उसके सर को धड़ से अलग कर महोबा लाये अपने मृत पिता और चाचा को मांडो विजय की सद्धरांजलि अर्पित किये।

नोट- आल्हा का विवाह सोनवा से हुआ था 

आल्हा ऊदल का महोबा से जाना: माहिल ने धूर्त कुटिल कुटनित का परिचय देते हुए राजा परमाल आल्हा उदल के खिलाफ भर दिया जिसका नतीजा यह निकला की आल्हा ऊदल महोबा छोड़ कर कनौज चले जाना जयचन्द्र के यहाँ शरण।

पृथ्वी राज का आक्रमण और मलखान की मृत्यु: इधर माहिल ने पृथ्वी राज से जा कर बोलै की यही अच्छा मौका है महोबा से आल्हा उदल दूर है और राज्य से निष्कासित है स्वाभिमानी है महोबा नहीं आएंगे आप महोबा पर चढ़ाई करो मलखान अकेला है क्या करेगा, प्रथ्वीराज ने हैरत से कहा – क्या कहते हो अकेला मलखान ? अरे जो हाथी सूंड पकड़कर कर पछाड़ सकता है, उस महाबली को तुम अकेला कह रहे हो, इस बात से मलखान की वीरता का पता चलता है। 

 लेकिन माहिल ने किसी तरह पृथ्वी को तैयार कर के महोबा पर आक्रमण के लिए तैयार कर लिया, एक विशाल संघटित सेना तैयार  करके महोबा को घेर लिया गया, मलखान ने भी सेना संघटित कर पृथ्वी का सामना किया भीसड़ संग्राम हुआ लेकिन एक विशाल खाई खोदी गई थी जो घास से ढकी थी और उसके अंदर भाले लगे थे मलखान लड़ते लड़ते उधर ही  चला गया और घोडा समेत उस खाई में गिर गया और मलखान वीर गति को प्राप्त हुआ।


ऊदल का पृथ्वी से आमना सामना: पृथ्वी राज मलखान की मौत के बाद सेना लेकर महोबा के लिए कूच किया तभी ऊदल को खबर लगी और अपने मित्र लाखन साथ जो की जयचंद्र का बेटा था , उसको लेकर पृथ्वी का रास्त रोक लेता है एक महा संग्राम के बिच पृथवी को खदेड़ देता है, जब यह खबर राजा परमार को लगी की ऊदलने पृथ्वी को खदेड़ा तो फिर से दोनों भाइयों को मना कर महोबा वापिस लाया गया। 

घर-घर महोबा पृथ्वी घेरा, फाटक बंद दियो करवाय

तुम बिन विपदा हम पर गिर गई, बेटा हमको होऊ सहाय

नगर महोबा जब लुट जैहें, तब का खाक बटोरबा आय

याही दिन को हम पालो है, को अइसन में अइहे काम

सोतुम छाए रहे कनवज में, हम पर परी आपदा आए 

                                              देखत चिठ्ठी के आवो तुम,राखा धर्म चंदेले क्यार। 


राजा परमार के पुत्र ब्रह्मकुमार का पृथ्वी राज की कन्या बेला मर मोहित होना बिना पिता के अनुमति विवाह 


ब्रह्मा कुमार की मृत्यु, बेलवा का सती होना: लेकिन धूर्त कपटी माहिल ने राजा परमाल से बेला के गौने की बात चलाई,  लेकिन समस्या थी कि बिना युद्ध के तो गौना होने से रहा, दरबार लगा, राजा ने पान का एक बीड़ा रखवा दिया की बेला का गौना करके ला सकता है, वह पान का बीड़ा मुख में दबा ले,सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे, ऊदल ने आगे बढ़कर बीड़ा उठा लिया। लेकिन तुरंत माहिल ने राजा से कहा की ऊदल के जाने से तो युद्ध निश्चित है, किन्तु ब्रह्मा के साथ मैं जाऊंगा तो महाराज प्रथ्वीराज राजी से ही बेला का गौना कर देंगे, ब्रह्मा ने ऊदल से मना कर दिया और कहा, तुम रहने दो मैं ही जाउंगा, बीड़ा उठा चुके ऊदल को यह बात अपमान जनक लगी, और दोनों भाइयों ने साथ न जाने का निर्णय लिया।

माहिल का गद्दारी: माहिल ने ब्रह्मा को समझाया कि महाराज प्रथ्वीराज तुम्हारी वीरता की परीक्षा लेना चाहते हैं, अतः वीरता पूर्वक युद्ध करना होगा | ब्रह्मा ने वीरता पूर्वक युद्ध करते हुए दिल्ली की सेना के छक्के छुड़ा दिए | माहिल ने कपट करने का सलाह पृथ्वी राज  को दिया और कहा हे पृथ्वीराज डोली मँगवावो और उसमे अपने सेनापति बैठा दो इधर मई ब्रह्मा को बता देता हु की आप बेला को भेज रहे हो गोना करा कर, उधर डोली देख प्रसन्न होकर जैसे ही ब्रह्मा डोली के पास पहुंचे स्त्री वेश धारी चामुंडराय ने एक प्रहार से ब्रम्हा की सर को धड़ से अलग कर दिया, यह समाचार पाकर बेला अत्यंत दुखी हुई और उसने ऊदल को सन्देश भेजा, कि आप आकर मेरी मदद करो और मुझे मेरे पति के पास पहुँचाओ |ऊदल संदेश पाकर युद्ध करता है बेला को उसके मृत पति के पास लाता है और बेला का सती होना,

जब बेला को लेकर उदल चला तो पृथ्वी उसका पीछा करते हुए वह पंहुचा जहा बेला सती हो कर पति के साथ जल रही थी। 

ऊदल का पृथ्वीराज का युद्ध: गुस्से से पृथ्वी का ऊदल को ललकारना  और एक साथ सैकड़ो योद्धा का ऊदल से युद्ध लेकिन कहा जाता है की हजारों सेनिको को मारने के बाद ऊदल भी इस युद्ध में मारा गया। 

आल्हा और पृथ्वी का युद्ध: आल्हा को अपने छोटे भाई की वीरगति की खबर सुनकर अपना अपना आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े आल्हा के सामने जो आया मारा गया 18 दिन तक लड़ाई चली, घनघोर युद्ध के बाद पृथ्वीराज और आल्हा आमने-सामने थे दोनों में भीषण युद्ध हुआ पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हुए युद्ध हार गए कहा जाता है की गुरु गोरखनाथ के कहने पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया और बुन्देलखण्ड के महा योद्धा आल्हा ने नाथ पन्थ स्वीकार कर लिया

आल्हा इस युद्ध के बाद,
ऊदल की पृथ्वीराज चौहान द्वारा वीरगति पाने के पश्चात आल्हा ने संन्यास ले लिया और फिर कभी युद्ध नही किया।  
मान्यता के अनुसार: मां के परम भक्त आल्हा को मां शारदा का अमरत्व का आशीर्वाद प्राप्त था, और वो आज बी जिन्दा है और प्र्तेक दिन माँ शारदा की पहली पूजा वही करते है,

बैरागढ़ जहाँ माँ शारदा प्रकट हो आल्हा को दर्शन दिया और माँ आदेशानुसार आल्हा ने अपनी साग (हथियार) बैरागढ़ शारदा मंदिर पर चढ़ाकर नोक टेढ़ी कर दी थी जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है। लोककथावों के अनुसार ३० फिट की साग है और उतनी ही निचे धसी है।

मैहर में और बैरागढ़: दोनों शक्ति पीठो में माँ शारदा की पहली पूजा आल्हा के ही करने का प्रमाण मिलता है, पुजारियों के अनुसार सुबह मंदिर के कपाट खुलने पर नारियल, फूल, फल चढ़े हुए मिलते है, 

         माता शारदा के प्रथम दशर्न आल्हा द्वारा ही करने के प्रमाण  पुजारी बतलाते है। 

 बैरागढ़ में माँ का तीन रूपो में विराजमान है, यहाँ माँ शारद के भक्तो के अनुसार माँ के तीन रूप का दर्शन होता है, सुबह के पहर कन्या रूप में, दोपहर के समय युवती रूप में, शाम को माँ के रूम में- इस मंदिर को माँ के शक्ति पीठ भी कहा जाता है, यहाँ बने कुंड में स्नान करने से चर्म रोगो से छुटकारा मिलता है ऐसा यहाँ के पुजारी का कहना है। 

               (यह रचना कवियों और आल्हा खण्ड के अनुसार लिखी गई है।)


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