Changes in Indian Politics 1962 and 1967, भारतीय राजनीति में बदलाव

भारतीय राजनीति में बदलाव 1967

sansad
संसद भवन 

राजनैतिक जीवन: 1967 आते आते देश की राजनीतिक को लेकर जनता को एक बड़ा बदलाव देखने को मिला 1967 इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि डॉ ज़ाकिर हुसैन की शक़्ल में पहला मुस्लिम राष्ट्रपति देश को मिला। 



चीन की चाल बाजी: 19 से 25 फरवरी 1962 के आम चुनाव के कुछ महीनों बाद ही 20 अक्टूबर 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ। चीन की तरफ से हमला किया गया कई मायने में यह एकतरफा युद्ध था। चीन के हाथों भारत को करारी शिकस्त खानी पड़ी। उस समय देश में 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' के नारे गूंजते थे, चीन से मिले धोखे से नेहरू का 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' का सपना चूर-चूर हो गया था। सारा देश स्तब्ध था और देश एक युद्ध झेल रहा था।

नेहरू के मृत्यु: भारत की तरफ से कोई भी युद्ध लडने की तयारी नहीं थी, हमारी सेना को कई मोर्चे पीछे हटना पड़ा,  इस युद्ध के बाद नेहरू को चौतरफा आलोचना झेलना पड़ा और संसद में जबाब देना मुश्किल हो गया, यूँ कहे तो चीन से मिले इस धोखे से नेहरू इस सदमे से उबर नहीं पाए और अस्वस्थ रहने लगे और युद्घ के डेढ़ साल के भीतर ही उनका निधन हो गया। 27 मई 1964 में उनकी मृत्यु होगई।  

नेहरू के बाद कौन? एक तो पहले से ही देश की जनता के मन में एक सवाल था की- नेहरू के बाद कौन? लेकिन पहली बार इस सवाल से देश का सीधा सामना 1964 हुआ।

(भारत चीन युद्ध पर विस्तार से वर्णन करते हुए एक अलग से लेख लिखुगाँ अभी 1967  चर्चा करते है।) 

कार्यवाहक प्रधानमंत्री: नेहरू के मृत्यु के बाद गुलजारीलाल नंदा कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने और फिर कुछ दिनों बाद 9 जून 1964 को लालबहादुर शास्त्री भारत के प्रधान मंत्री बने। 

1965 का युद्ध लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु: अभी देश एक युद्ध से उबर भी नहीं पाया था की दूसरे बड़े युद्ध की शुरुआत हो गया 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया और भारत के तरफ से 6 सितंबर 1965 को आधिकारिक तौर पर युद्ध का बिगुल बजा दिया था। सोवियत संघ के हस्तक्षेप से युद्घविराम और समझौता हुआ। 11 जनवरी 1966  को ताशकंद में ही शास्त्रीजी की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। 

एक बार पुनः गुलजारी लाल नंदा  कार्यवाहक प्रधान मंत्री बने 11जनवरी 1966 - 24 जनवरी 1966, 

इंद्रा गाँधी  24 जनवरी 1966 को देश की पहली महिला प्रधान मंत्री बनी।  

1962 से 1967 के बीच जो घटनाएं घटी उससे भारतीय राजनीत की दशा दिशा दोनों में बदलाव देखने को मिला। 

1962 उपचुनाव: 1962 के हुए लोकसभा चुनाव के बाद कुछ खाली सीटों पर उपचुनाव हुए थे,  जिसमें 1963 में समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया फर्रुखाबाद से, स्वतंत्र पार्टी के सिद्घांतकार मीनू मसानी गुजरात की राजकोट सीट से उप  चुनाव जितकर आए  थे,  1964 में समाजवादी नेता मधु लिमये भी बिहार के मुंगेर संसदीय क्षेत्र से उपचुनाव जित कर लोकसभा पहुंची।  

भाकपा का विभाजन: इसी दौरान देश की राजनीति में एक घटना और हुई। सैद्धांतिक मतभेदों के चलते 1964 में ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का विभाजन हो गया। भाकपा से अलग होकर एके गोपालन, ईएमएस नम्बूदिरीपाद, बीटी रणदिवे आदि नेताओं ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का गठन कर लिया।

चौथी  लोकसभा: 1967 में चौथी  लोकसभा का आम चुनाव होने जा रहा था, जाहिर है कि आम चुनाव के मुद्दे भी इसी पृष्ठभूमि के इर्द-गिर्द ही थे। कांग्रेस के लिए नेहरू की गैरमौजूदगी और इंदिरा गांधी की असरदार मौजूदगी वाला यह पहला आम चुनाव था। और उप चुनाव जीतकर कई दिग्गज नेता पहले से ही लोक सभा पहुँचे थे और इंद्रा को उनसे भी  इस लोक सभा चुनाव में चुनौती मिलने वाली थी, राष्ट्रीय राजनीत में बदलाव की शुरुआत से  कांग्रेस के सामने कई चुनौती थी। 

इस चुनाव मे लोकसभा की कुल सीटें 494 से बढ़ाकर 520 कर दी गई थी, इस चुनाव मे 15 करोड़ 27 लाख लोगों ने मतदान किया था, चुनाव नतीजे से कांग्रेस को करारा झटका लगा, उसे स्पष्ट बहुमत तो मिल गया लेकिन पिछले चुनाव के मुकाबले लोकसभा में कांग्रेस की संख्या बल कम हो गई 
कांग्रेस को झटका: पिछले तीनों आम चुनावों में कांग्रेस को करीब तीन चौथाई सीटें मिलती रहीं लेकिन इस बार उसके खाते में मात्र 283 सीटें ही आईं यानी बहुमत से मात्र 22 सीटें ज्यादा. उसे प्राप्त वोटों के प्रतिशत में भी करीब पांच फीसदी की गिरावट आई. कांग्रेस को 1952 में 45 फीसदी, 1957 में 47.78 फीसदी और 1962 में 44.72 फीसदी वोट मिले थे पर 1967 के चुनाव नतीजे चौंकाने वाले रहे, कांग्रेस का वोट घटकर 40.78 फीसदी रह गया. इस चुनाव कांग्रेस तीन प्रत्याशियों की जमानत जब्त होने के करीब पहुंच गई थी, लेकिन  कांग्रेस के सात उम्मीदवारों के जमानत जब्त हो गए, गुजरात, राजस्थान और ओडिशा में स्वतंत्र पार्टी ने कांग्रेस को जबरजस्त  झटका दिया तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली मे जनसंघ ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी, कांग्रेस को बंगाल और केरल में कम्युनिस्टों से भी कठीन चुनौती मिली।

सिंडिकेट: यह ऐसा वक्त था जब पूरा सिंडिकेट इंदिरा के खिलाफ था। उस समय विपक्षी नेतावों को सिंडिकेट कहा जाता था। लोहिया कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकने का आवाहन कर रहे थे। 

 1966 में ही  रुपए के अवमूल्यन के किया गया था। 
 
गौ हत्या और प्रदर्शन: गौ हत्या पर तत्काल रोक लगवाने के लिए 1966 में ही त्रिशूल लहराते हुए हजारों नागा साधुओं के साथ हिंदू समूहों ने संसद में घुसने की कोशिश की, और पुलिस ने गौ रक्षकों पर गोलियां चला दी और कई प्रदर्शनकारी मारे गए। इससे हालात इतने बेकाबू गए कि भीड़ को रोकने के लिए सेना को सड़कों पर उतारना पड़ा। 

बदलाव: इस चुनाव में विरोधी पार्टियों को मजबूत धार मिली और चुनावी विसात विछाने के लिए जमीन भी।

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